नारी विमर्श >> रेखा (पेपरबैक) रेखा (पेपरबैक)भगवतीचरण वर्मा
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रेखा ने श्रद्धातिरेक से अपनी उम्र से कहीं बड़े उस व्यक्ति से विवाह कर लिया जिसे वह अपनी आत्मा तो समर्पित कर सकी, लेकिन उसके प्रति उसका शरीर निष्ठावान नहीं रह सका।
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
व्यक्ति के गुह्मतम मनोवैज्ञानिक चरित्र-चित्रण के लिए सिद्धहस्त प्रख्यात लेखक श्री भगवती चरण वर्मा ने इस उपन्यास में शरीर की भूख से पीड़ित एक आधुनिक, लेकिन एक ऐसी असहाय नारी की करुण कहानी कही है जो अपने अंतर के संघषों में दुनिया के सब सहारे गवाँ बैठी। रेखा ने श्रद्धातिरेक से अपनी उम्र से कहीं बड़े उस व्यक्ति से विवाह कर लिया जिसे वह अपनी आत्मा तो समर्पित कर सकी, लेकिन उसके प्रति उसका शरीर निष्ठावान नहीं रह सका।
शरीर के सतरंगी नागपाश और आत्मा के उत्तरदायी संयम के बीच हिलोरें खाती हुई रेखा एक दुर्घटना की तरह है, इसके लिए एक ओर यदि उसका भावुक मन जिम्मेदार है, तो दूसरी ओर पुरुष के वह अक्षम्य ‘कमजोरी’ भी जिसे समाज ‘स्वाभाविक’ कहकर बचना चाहता है।
वस्तुतः रेखा-जैसी युवती के बहाने आधुनिक भारतीय नारी की यह दारुण कथा पाठकों के मन को गहरे तक झकझोर जाती है।
शरीर के सतरंगी नागपाश और आत्मा के उत्तरदायी संयम के बीच हिलोरें खाती हुई रेखा एक दुर्घटना की तरह है, इसके लिए एक ओर यदि उसका भावुक मन जिम्मेदार है, तो दूसरी ओर पुरुष के वह अक्षम्य ‘कमजोरी’ भी जिसे समाज ‘स्वाभाविक’ कहकर बचना चाहता है।
वस्तुतः रेखा-जैसी युवती के बहाने आधुनिक भारतीय नारी की यह दारुण कथा पाठकों के मन को गहरे तक झकझोर जाती है।
रेखा
1
ड्रेसिंग टेबल के सामने बैठी हुई रेखा बाल सँवारते-सँवारते अपने प्रतिबिम्ब से उलझ गयी। उसके सामने वाली दो बड़ी-बड़ी आँखों में एक प्रकार की चमक थी। कमान की तरह खिंची हुई घनी भौंहों के नीचे मछली के आकार की दो आँखें दुग्ध के सरोवर में मानो दो गहरी नीली गोलियाँ उतरा रही हों। गहरी नीली पुतलियाँ ! रेखा की इन पुतलियों में कौन सा आकर्षण है जो लोग उसके सामने खिलौने बन जाया करते हैं ? रेखा ने अनेक बार अपने से ही यह प्रश्न किया, लेकिन उत्तर कभी नहीं मिला उसे।
खिलौने ! खिलौनों से खेलने की उम्र रेखा पार कर चुकी है, लेकिन खिलौनों से खेलने की प्रवृत्ति उसमें अभी तक बनी है। उसकी आँखों के आगे जो कुछ है वह सब उसके लिए खिलौना है, और जो कुछ सामने है उससे भी अलग हटकर रेखा की आँखों में, बहुत- कुछ में रंगीनी है, मादकता है, पुलक है, उल्लास है, उस बहुत कुछ में रेखा की समस्त कल्पना है। लेकिन जिस प्रकार कल्पना का कोआ आकार नहीं है, उसी प्रकार उस बहुत कुछ की संज्ञा रेखा के लिए अनजानी है। बहुत कुछ खिलौना तो नहीं है, रेखा इतना अनुभव कर सकती है। पर वह यह अनुभव नहीं कर पाती कि उस बहुत कुछ के हाथ में रेखा स्वयं एक खिलौना है।
रेखा अपने बाल सँवार चुकी। अलसायी हुई-सी वह ड्रेसिंग टेबल के सामने से हटी। उसने अपने हाथ में बँधी घड़ी देखी, साढ़े नौ बज रहे थे, और दस बजे क्लास था उसका। उसके होस्टल से विश्वविद्यालय में उसके विभाग का रास्ता मुश्किल से दस मिनट का था और रेखा फिर ड्रेसिंग टेबल के सामने बैठ गयी। एक हफ्ता पहले उसने एक फिल्म देखी थी। उस फिल्म की हीरोइन ने धनुषाकार मछली के ढंग की बिन्दी लगायी थी अपने मत्थे पर। और रेखा को वह बिन्दी बहुत पसन्द आयी थी। उसने अपनी फूल के आकार की बिन्दी मिटाकर उसी तरह की बिन्दी लगायी।
रेखा सुन्दर है, रेखा को इसका पता था। मटमैले सोने का-सा रंग, जो पेण्ट की सहायता से चमकने लगा था। नुकीली और पतली नाक, चौड़ा मत्था। पतले-पतले होंठ, जिनके नीचे चमकते हुए अनार के कानों की तरह के छोटे-छोटे दाँत। एक प्रकार का तीखापन था उसके चेहरे पर। यह तीखापन शायद इसीलिए और भी स्पष्ट हो गया था कि वह इकहरे बदन की थी। उसका शरीर सुडौल और तना हुआ था, उसकी चाल में एक प्रकार का आत्मविश्वास था। रेखा ने खड़े होकर अपने शरीर को दर्पण में देखा और जैसे वह स्वयं अपनी सुन्दरता पर मुग्ध हो गयी। इसी सौन्दर्य को बिखेरने के लिए तो उसने अपना श्रृंगार किया था। अपने क्लास में जाते समय भी अपना सौन्दर्य बिखेरने की अभिलाषा का दमन वह न कर पाती थी।
उसके क्लास में कितने विद्यार्थी हैं-उससे अगर यह पूछा जाता हो वह न बतला पाती। उसके क्लास में जो विद्यार्थी थे उनके सम्बन्ध में उसका ज्ञान नहीं के बराबर था। अपने क्लास के विद्यार्थियों से वह हँसती-बोलती थी। उनमें से हरेक को वह पहचानती थी और प्रायः हरेक का नाम भी वह जानती थी। लेकिन सिवा क्वासरूम के उसके लिए उन विद्यार्थियों का कोई अस्तित्व न था। उसके क्लास में लड़के थे, लड़कियाँ थीं। अपने सहपाठियों की आकृति से वह भली-भाँति परिचित थी। लेकिन वे सब आकृतियाँ थीं, जिनके सहारे एक-दूसरे को अलग करके पहचाना जा सकता था। इसके आगे उन आकृतियों की उसके लिए कोई महत्ता न थी।
उन आकृतियों में प्राण हैं, उन आकृतियों के अन्दर भावनाएँ हैं, उन आकृतियों में हृदय का स्पन्दन है, रक्त का प्रवाह है-ऐसा नहीं कि रेखा यह सब जानती न हो, उनके रोग- द्वेष को वह पहचानती थी। लेकिन इस सबसे उसका मनोरंजन भर होता था जैसे ये आकृतियों उसका मनोरंजन भर करने को हों। वैसे उसके वास्तविक अस्तित्व के लिए ये नितान्त महत्त्वहीन थीं।
अपना सौन्दर्य बिखेरती थी रेखा उन आकृतियों पर, केवल इसलिए कि इसमें उसे सुख मिलता था। उसके सौन्दर्य से प्रभावित होकर वे आकृतियाँ उसकी सराहना करें; यही नहीं, ये आकृतियाँ उसके आगे झुकें, उससे अपने को हीन समझें। वह इन आकृतियों पर जैसे छा जाना चाहती हो। वैसे उसे अपने रूप पर गर्व करते किसी ने नहीं देखा, विनय और शालीनता उसको संस्कार से मिले थे।
यूनिवर्सिटी गर्मी की छुट्टियों के बाद प्रायः एक हफ्ते से पढ़ाई भी शुरू हो गयी थी। एम. ए. प्रीवियस पास करते रेखा एम.ए. फाइनल में आयी थी, उसका विषय दर्शनशास्त्र। एम.ए. प्रीवियस की मार्कशीट जब उसे मिली थी, वह प्रसन्नता से खिल उठी थी। उसे सत्तर प्रतिशत नम्बर मिले थे, और सबसे बड़ा आश्चर्य तो इस बात पर हुआ था कि प्रोफेसर शंकर के परचे में उसे बयासी प्रतिशत नम्बर मिले थे। प्रोफेसर प्रभाशंकर उसके विभाग के अध्यक्ष थे और वह विश्वख्याति के दार्शनिक माने जाते थे। भारतीय दर्शन के वह दुनिया में सबसे बड़े विद्वान समझे जाते थे, उनका मत प्रमाण था। अभी दो दिन पहले वह अमेरिका से दर्शनशास्त्रियों की एक बहुत बड़ी कान्फ्रेंस में भाग लेकर लौटे थे वहाँ उनकी बड़ी प्रशंसा हुई थी। उस दिन एम.ए. फाइनल के क्लास का उनका पहला दिन था।
लाख प्रयत्न करने पर भी रेखा डॉक्टर प्रभाशंकर को आकृति के रूप में नहीं देख सकी। प्रोफेसर शंकर की गम्भीर वाणी, उनकी पैनी दृष्टि उनके मुख पर झलकने वाला असीम आत्मविश्वास इस सबमें कुछ ऐसा था कि रेखा स्वयं अपने अन्दर झुक जाती थी। रेखा को कभी-कभी लगने लगता था कि वह स्वयं डॉक्टर प्रभाशंकर के लिए एक आकृति की भाँति है, और इस बात पर उसे झुँझलाहट होने लगती थी। जहाँ अन्य अध्यापकों और सहपाठियों की नजरें उस पर गड़ सी जाया करती थीं, उसके अन्दर एक प्रकार की विजय की भावना का पुलक उत्पन्न करते हुए, वहाँ डॉक्टर प्रभाशंकर की नजर एक उपेक्षा बनकर उसके ऊपर से फिसलती हुई निकल जाया करती थी। डॉक्टर प्रभाशंकर की नजर कहीं किसी के चेहरे पर गड़ती भी है, रेखा को कभी-कभी इस बात को जानने का कौतूहल होता था। क्या इस तत्त्वज्ञानी के लिए भी दुनिया के सब लोग केवल, आकृतियों के रूप में स्थित हैं-रेखा के मन में प्रायः यह प्रश्न उठ खड़ा होता था, जिसका उत्तर पाना उसे नितान्त कठिन दिखता था।
रेखा सोच रही थी-बड़े अलसाये ढंग से। तभी उसकी नजर मेज पर रखी हुई टाइम पीस पर पड़ी और वह एक झटके के साथ उठ खड़ी हुई। दस बजने में अब सिर्फ आठ मिनट बाकी थे। तेजी के साथ कमरे से बाहर निकलकर उसने दरवाजे पर ताला लगाया और फिर वह यूनिवर्सिटी की ओर दौड़ने की गति में चलने लगी थी।
डॉक्टर प्रभाशंकर समय के बड़े पाबन्द हैं, हरेक को इस बात का पता था। इधर घण्टा बजा और उधर डॉक्टर प्रभाशंकर ने क्लासरूम में प्रवेश किया। सीधे अपनी मेज पर आकर वह हाजिरी का रजिस्टर खोलते थे और बिना किसी ओर देख वह उसी समय हाजिरी लेना आरम्भ कर देते थे। नाम पुकारने पर जो हाजिरी बोलता था वह हाजिर समझा जाता था। अपने रजिस्टर में वह बाद में कोई परिवर्तन न करते थे। इस नियम का वह कठोरता के साथ पालन भी करते हैं-हरेक आदमी इस बात को जानता था।
तेजी के साथ चलने के कारण रेखा का दम फूलने लगा था, लेकिन उसकी चाल और अधिक तेज होती जा रही थी। सामने करीब सौ सवा सौ कदम की दूरी पर उसका क्लासरूम दिख रहा था, और तभी घण्टी बजी। रेखा अब दौड़ने लगी। बदहवास सी दौड़ती हुई वह क्लासरूम के द्वार तक पहुँची, और साँस लेने के लिए वह एक क्षण वहाँ रुकी, उसी समय प्रोफेसर शंकर की आवाज उसे सुनायी दी, ‘‘रेखा भारद्वाज।’’
‘‘यस सर !’’ रेखा ने दरवाजे से ही हाजिरी बोली कुछ उखड़ी-सी आवाज में जो दम फूल जाने के कारण शिथिल थी।
प्रभाशंकर ने बिना दरवाजे की ओर देखे हुए कहा, ‘‘मैं तुम्हें आज प्रेजेण्ट किये देता हूँ, मिस भारद्वाज ! लेकिन हाजिरी अपनी सीट से बोली जानी चाहिए, दरवाजे से नहीं। और यह कहकर प्रभाशंकर ने दूसरा नाम पुकारा।
रेखा चुपचाप अपनी सीट पर बैठ गयी, मर्माहत सी। केवल कुछ सेकेण्डों की देर हुई थी उससे, लेकिन रजिस्टर में उसका नाम चौथा था, भारद्वाज के ‘बी’ के कारण, जिसके कारण आज उसे यह सुनना पड़ा। प्रोफेसर प्रभाशंकर ने रजिस्टर बन्द करके अपने क्वास को एक छोटा सा लेक्चर दिया। यह उनके क्लास का पहला दिन था। उस लेक्चर में उन्होंने विद्यार्थियों का क्लास में स्वागत किया, और साथ ही उन्होंने अमेरिका के अपने अनुभव बतलाये। काफी दिलचस्प लेक्चर था उनका। बड़ी तन्मयता के साथ सारा क्लास उनके लेक्चर को सुन रहा था।
लेकिन रेखा उस समय कुछ अजीब-सी अपने अन्दर खोयी हुई थी। पूरे क्लास के सामने प्रोफेसर शंकर ने जो उसे एक तरह से डाँटा था, उससे उसको चोट पहुँची थी, और उससे अधिक चोट रेखा को इस बात से पहुँची थी कि अपनी बात कहते समय डाक्टर प्रभाशंकर ने रेखा को देखा तक नहीं था। वह आकृति ही नहीं, वह केवल नाम थी-नाम !
प्रोफेसर शंकर ने अपने लेक्चर जल्दी ही समाप्त कर दिया और वह उठ खड़े हुए। लेकिन जैसे उन्हें कोई बात याद आ गयी हो। उन्होंने अपनी जेब से एक छोटी-सी नोटबुक निकाली, उसे उलटकर उन्होंने देखा, फिर वह बोले राजकुमार ! तुम एक बजे मेरे कमरे में मुझसे मिलना, और रेखा भारद्वाज ! तुम एक बजकर पन्द्रह मिनट पर मुझसे मिलना।’’
रेखा को अनुभव हुआ कि इस बार प्रोफेसर शंकर की नजर उसके ऊपर से फिसलती हुई निकल नहीं गयी, बल्कि वह उस पर आकर जम गयी और उस दृष्टि से रेखा घबरा गयी। उस दृष्टि में ऐसा कुछ था जिसे रेखा ने अपने समस्त अस्तित्व पर था जाते अनुभव किया। एक अजीब तरह का स्निग्ध और शीतल आकर्षण था उसमें, उसका सारा शरीर पुलक उठा था। बहुत थोड़ी देर, मुश्किल से कोई चार-पाँच सेकण्ड के लिए वह दृष्टि रेखा पर रुकी थी और फिर एकाएक वह छिटक गयी थी। डॉक्टर शंकर ने नोटबुक अपनी जेब में रख ली और बड़े निस्पृह भाव से रजिस्टर हाथ में लेकर वह क्लासरूम के बाहर चले गये। घण्टा समाप्त होने में अभी दस मिनट बाकी थे।
ठीक एक बजकर पाँच मिनट पर रेखा प्रोफेसर शंकर के कमरे के सामने पहुँच गयी थी। चपरासी ने उसको कमरे के सामने खड़ी देखकर कहा, ‘‘मिस साहेब, साहेब तो अभी खाली नहीं हैं। वह क्या नाम है उनका-हाँ, राजकुमार साहेब हैं उनके पास, अभी-अभी आये हैं। तो इस बखत तो वह शायद ही आपसे मिल सकें-खाने का बखत हो गया है। शाम को चार बजे फुरसत से होंगे, तब आ जाइयेगा।’’
‘‘प्रोफेसर ने मुझसे कहा है कि मैं एक बजकर पन्द्रह मिनट पर उनसे मिलूँ आकर’’ रेखा ने उत्तर दिया।
‘‘तो फिर आप ठहरिए, साहेब खाली हो जायें तो खबर करता हूँ। कुर्सी पर बैठ जाइए।’’
रेखा कुर्सी पर नहीं बैठी, वह बरामदे में टहलने लगी। उसने घड़ी देखी, अभी आठ मिनट बाकी थे एक बजकर पन्द्रह मिनट होने में। तभी उसने देखा कि राजकुमार प्रोफेसर के कमरे से निकलकर चला गया। राजकुमार के कमरे से निकलते ही प्रोफेसर के कमरे के बाहर वाली घण्टी बजी, उसी समय चपरासी कमरे के अन्दर चला गया।
खिलौने ! खिलौनों से खेलने की उम्र रेखा पार कर चुकी है, लेकिन खिलौनों से खेलने की प्रवृत्ति उसमें अभी तक बनी है। उसकी आँखों के आगे जो कुछ है वह सब उसके लिए खिलौना है, और जो कुछ सामने है उससे भी अलग हटकर रेखा की आँखों में, बहुत- कुछ में रंगीनी है, मादकता है, पुलक है, उल्लास है, उस बहुत कुछ में रेखा की समस्त कल्पना है। लेकिन जिस प्रकार कल्पना का कोआ आकार नहीं है, उसी प्रकार उस बहुत कुछ की संज्ञा रेखा के लिए अनजानी है। बहुत कुछ खिलौना तो नहीं है, रेखा इतना अनुभव कर सकती है। पर वह यह अनुभव नहीं कर पाती कि उस बहुत कुछ के हाथ में रेखा स्वयं एक खिलौना है।
रेखा अपने बाल सँवार चुकी। अलसायी हुई-सी वह ड्रेसिंग टेबल के सामने से हटी। उसने अपने हाथ में बँधी घड़ी देखी, साढ़े नौ बज रहे थे, और दस बजे क्लास था उसका। उसके होस्टल से विश्वविद्यालय में उसके विभाग का रास्ता मुश्किल से दस मिनट का था और रेखा फिर ड्रेसिंग टेबल के सामने बैठ गयी। एक हफ्ता पहले उसने एक फिल्म देखी थी। उस फिल्म की हीरोइन ने धनुषाकार मछली के ढंग की बिन्दी लगायी थी अपने मत्थे पर। और रेखा को वह बिन्दी बहुत पसन्द आयी थी। उसने अपनी फूल के आकार की बिन्दी मिटाकर उसी तरह की बिन्दी लगायी।
रेखा सुन्दर है, रेखा को इसका पता था। मटमैले सोने का-सा रंग, जो पेण्ट की सहायता से चमकने लगा था। नुकीली और पतली नाक, चौड़ा मत्था। पतले-पतले होंठ, जिनके नीचे चमकते हुए अनार के कानों की तरह के छोटे-छोटे दाँत। एक प्रकार का तीखापन था उसके चेहरे पर। यह तीखापन शायद इसीलिए और भी स्पष्ट हो गया था कि वह इकहरे बदन की थी। उसका शरीर सुडौल और तना हुआ था, उसकी चाल में एक प्रकार का आत्मविश्वास था। रेखा ने खड़े होकर अपने शरीर को दर्पण में देखा और जैसे वह स्वयं अपनी सुन्दरता पर मुग्ध हो गयी। इसी सौन्दर्य को बिखेरने के लिए तो उसने अपना श्रृंगार किया था। अपने क्लास में जाते समय भी अपना सौन्दर्य बिखेरने की अभिलाषा का दमन वह न कर पाती थी।
उसके क्लास में कितने विद्यार्थी हैं-उससे अगर यह पूछा जाता हो वह न बतला पाती। उसके क्लास में जो विद्यार्थी थे उनके सम्बन्ध में उसका ज्ञान नहीं के बराबर था। अपने क्लास के विद्यार्थियों से वह हँसती-बोलती थी। उनमें से हरेक को वह पहचानती थी और प्रायः हरेक का नाम भी वह जानती थी। लेकिन सिवा क्वासरूम के उसके लिए उन विद्यार्थियों का कोई अस्तित्व न था। उसके क्लास में लड़के थे, लड़कियाँ थीं। अपने सहपाठियों की आकृति से वह भली-भाँति परिचित थी। लेकिन वे सब आकृतियाँ थीं, जिनके सहारे एक-दूसरे को अलग करके पहचाना जा सकता था। इसके आगे उन आकृतियों की उसके लिए कोई महत्ता न थी।
उन आकृतियों में प्राण हैं, उन आकृतियों के अन्दर भावनाएँ हैं, उन आकृतियों में हृदय का स्पन्दन है, रक्त का प्रवाह है-ऐसा नहीं कि रेखा यह सब जानती न हो, उनके रोग- द्वेष को वह पहचानती थी। लेकिन इस सबसे उसका मनोरंजन भर होता था जैसे ये आकृतियों उसका मनोरंजन भर करने को हों। वैसे उसके वास्तविक अस्तित्व के लिए ये नितान्त महत्त्वहीन थीं।
अपना सौन्दर्य बिखेरती थी रेखा उन आकृतियों पर, केवल इसलिए कि इसमें उसे सुख मिलता था। उसके सौन्दर्य से प्रभावित होकर वे आकृतियाँ उसकी सराहना करें; यही नहीं, ये आकृतियाँ उसके आगे झुकें, उससे अपने को हीन समझें। वह इन आकृतियों पर जैसे छा जाना चाहती हो। वैसे उसे अपने रूप पर गर्व करते किसी ने नहीं देखा, विनय और शालीनता उसको संस्कार से मिले थे।
यूनिवर्सिटी गर्मी की छुट्टियों के बाद प्रायः एक हफ्ते से पढ़ाई भी शुरू हो गयी थी। एम. ए. प्रीवियस पास करते रेखा एम.ए. फाइनल में आयी थी, उसका विषय दर्शनशास्त्र। एम.ए. प्रीवियस की मार्कशीट जब उसे मिली थी, वह प्रसन्नता से खिल उठी थी। उसे सत्तर प्रतिशत नम्बर मिले थे, और सबसे बड़ा आश्चर्य तो इस बात पर हुआ था कि प्रोफेसर शंकर के परचे में उसे बयासी प्रतिशत नम्बर मिले थे। प्रोफेसर प्रभाशंकर उसके विभाग के अध्यक्ष थे और वह विश्वख्याति के दार्शनिक माने जाते थे। भारतीय दर्शन के वह दुनिया में सबसे बड़े विद्वान समझे जाते थे, उनका मत प्रमाण था। अभी दो दिन पहले वह अमेरिका से दर्शनशास्त्रियों की एक बहुत बड़ी कान्फ्रेंस में भाग लेकर लौटे थे वहाँ उनकी बड़ी प्रशंसा हुई थी। उस दिन एम.ए. फाइनल के क्लास का उनका पहला दिन था।
लाख प्रयत्न करने पर भी रेखा डॉक्टर प्रभाशंकर को आकृति के रूप में नहीं देख सकी। प्रोफेसर शंकर की गम्भीर वाणी, उनकी पैनी दृष्टि उनके मुख पर झलकने वाला असीम आत्मविश्वास इस सबमें कुछ ऐसा था कि रेखा स्वयं अपने अन्दर झुक जाती थी। रेखा को कभी-कभी लगने लगता था कि वह स्वयं डॉक्टर प्रभाशंकर के लिए एक आकृति की भाँति है, और इस बात पर उसे झुँझलाहट होने लगती थी। जहाँ अन्य अध्यापकों और सहपाठियों की नजरें उस पर गड़ सी जाया करती थीं, उसके अन्दर एक प्रकार की विजय की भावना का पुलक उत्पन्न करते हुए, वहाँ डॉक्टर प्रभाशंकर की नजर एक उपेक्षा बनकर उसके ऊपर से फिसलती हुई निकल जाया करती थी। डॉक्टर प्रभाशंकर की नजर कहीं किसी के चेहरे पर गड़ती भी है, रेखा को कभी-कभी इस बात को जानने का कौतूहल होता था। क्या इस तत्त्वज्ञानी के लिए भी दुनिया के सब लोग केवल, आकृतियों के रूप में स्थित हैं-रेखा के मन में प्रायः यह प्रश्न उठ खड़ा होता था, जिसका उत्तर पाना उसे नितान्त कठिन दिखता था।
रेखा सोच रही थी-बड़े अलसाये ढंग से। तभी उसकी नजर मेज पर रखी हुई टाइम पीस पर पड़ी और वह एक झटके के साथ उठ खड़ी हुई। दस बजने में अब सिर्फ आठ मिनट बाकी थे। तेजी के साथ कमरे से बाहर निकलकर उसने दरवाजे पर ताला लगाया और फिर वह यूनिवर्सिटी की ओर दौड़ने की गति में चलने लगी थी।
डॉक्टर प्रभाशंकर समय के बड़े पाबन्द हैं, हरेक को इस बात का पता था। इधर घण्टा बजा और उधर डॉक्टर प्रभाशंकर ने क्लासरूम में प्रवेश किया। सीधे अपनी मेज पर आकर वह हाजिरी का रजिस्टर खोलते थे और बिना किसी ओर देख वह उसी समय हाजिरी लेना आरम्भ कर देते थे। नाम पुकारने पर जो हाजिरी बोलता था वह हाजिर समझा जाता था। अपने रजिस्टर में वह बाद में कोई परिवर्तन न करते थे। इस नियम का वह कठोरता के साथ पालन भी करते हैं-हरेक आदमी इस बात को जानता था।
तेजी के साथ चलने के कारण रेखा का दम फूलने लगा था, लेकिन उसकी चाल और अधिक तेज होती जा रही थी। सामने करीब सौ सवा सौ कदम की दूरी पर उसका क्लासरूम दिख रहा था, और तभी घण्टी बजी। रेखा अब दौड़ने लगी। बदहवास सी दौड़ती हुई वह क्लासरूम के द्वार तक पहुँची, और साँस लेने के लिए वह एक क्षण वहाँ रुकी, उसी समय प्रोफेसर शंकर की आवाज उसे सुनायी दी, ‘‘रेखा भारद्वाज।’’
‘‘यस सर !’’ रेखा ने दरवाजे से ही हाजिरी बोली कुछ उखड़ी-सी आवाज में जो दम फूल जाने के कारण शिथिल थी।
प्रभाशंकर ने बिना दरवाजे की ओर देखे हुए कहा, ‘‘मैं तुम्हें आज प्रेजेण्ट किये देता हूँ, मिस भारद्वाज ! लेकिन हाजिरी अपनी सीट से बोली जानी चाहिए, दरवाजे से नहीं। और यह कहकर प्रभाशंकर ने दूसरा नाम पुकारा।
रेखा चुपचाप अपनी सीट पर बैठ गयी, मर्माहत सी। केवल कुछ सेकेण्डों की देर हुई थी उससे, लेकिन रजिस्टर में उसका नाम चौथा था, भारद्वाज के ‘बी’ के कारण, जिसके कारण आज उसे यह सुनना पड़ा। प्रोफेसर प्रभाशंकर ने रजिस्टर बन्द करके अपने क्वास को एक छोटा सा लेक्चर दिया। यह उनके क्लास का पहला दिन था। उस लेक्चर में उन्होंने विद्यार्थियों का क्लास में स्वागत किया, और साथ ही उन्होंने अमेरिका के अपने अनुभव बतलाये। काफी दिलचस्प लेक्चर था उनका। बड़ी तन्मयता के साथ सारा क्लास उनके लेक्चर को सुन रहा था।
लेकिन रेखा उस समय कुछ अजीब-सी अपने अन्दर खोयी हुई थी। पूरे क्लास के सामने प्रोफेसर शंकर ने जो उसे एक तरह से डाँटा था, उससे उसको चोट पहुँची थी, और उससे अधिक चोट रेखा को इस बात से पहुँची थी कि अपनी बात कहते समय डाक्टर प्रभाशंकर ने रेखा को देखा तक नहीं था। वह आकृति ही नहीं, वह केवल नाम थी-नाम !
प्रोफेसर शंकर ने अपने लेक्चर जल्दी ही समाप्त कर दिया और वह उठ खड़े हुए। लेकिन जैसे उन्हें कोई बात याद आ गयी हो। उन्होंने अपनी जेब से एक छोटी-सी नोटबुक निकाली, उसे उलटकर उन्होंने देखा, फिर वह बोले राजकुमार ! तुम एक बजे मेरे कमरे में मुझसे मिलना, और रेखा भारद्वाज ! तुम एक बजकर पन्द्रह मिनट पर मुझसे मिलना।’’
रेखा को अनुभव हुआ कि इस बार प्रोफेसर शंकर की नजर उसके ऊपर से फिसलती हुई निकल नहीं गयी, बल्कि वह उस पर आकर जम गयी और उस दृष्टि से रेखा घबरा गयी। उस दृष्टि में ऐसा कुछ था जिसे रेखा ने अपने समस्त अस्तित्व पर था जाते अनुभव किया। एक अजीब तरह का स्निग्ध और शीतल आकर्षण था उसमें, उसका सारा शरीर पुलक उठा था। बहुत थोड़ी देर, मुश्किल से कोई चार-पाँच सेकण्ड के लिए वह दृष्टि रेखा पर रुकी थी और फिर एकाएक वह छिटक गयी थी। डॉक्टर शंकर ने नोटबुक अपनी जेब में रख ली और बड़े निस्पृह भाव से रजिस्टर हाथ में लेकर वह क्लासरूम के बाहर चले गये। घण्टा समाप्त होने में अभी दस मिनट बाकी थे।
ठीक एक बजकर पाँच मिनट पर रेखा प्रोफेसर शंकर के कमरे के सामने पहुँच गयी थी। चपरासी ने उसको कमरे के सामने खड़ी देखकर कहा, ‘‘मिस साहेब, साहेब तो अभी खाली नहीं हैं। वह क्या नाम है उनका-हाँ, राजकुमार साहेब हैं उनके पास, अभी-अभी आये हैं। तो इस बखत तो वह शायद ही आपसे मिल सकें-खाने का बखत हो गया है। शाम को चार बजे फुरसत से होंगे, तब आ जाइयेगा।’’
‘‘प्रोफेसर ने मुझसे कहा है कि मैं एक बजकर पन्द्रह मिनट पर उनसे मिलूँ आकर’’ रेखा ने उत्तर दिया।
‘‘तो फिर आप ठहरिए, साहेब खाली हो जायें तो खबर करता हूँ। कुर्सी पर बैठ जाइए।’’
रेखा कुर्सी पर नहीं बैठी, वह बरामदे में टहलने लगी। उसने घड़ी देखी, अभी आठ मिनट बाकी थे एक बजकर पन्द्रह मिनट होने में। तभी उसने देखा कि राजकुमार प्रोफेसर के कमरे से निकलकर चला गया। राजकुमार के कमरे से निकलते ही प्रोफेसर के कमरे के बाहर वाली घण्टी बजी, उसी समय चपरासी कमरे के अन्दर चला गया।
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